भारत की महान गुरु शिष्य परंपरा के वाहक : गुरु तेग़ बहादुर

गुरु तेग़ बहादुर भारत के महान सिख संप्रदाय के नौवे गुरु थे | विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का नाम अद्वितीय है | दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु तेगबहादुर ​जी को औरंगज़ेब के आदेश पर ​आठ दिनों की यातना के ​उपरांत 24 नवंबर 1675 ई. शीश काटकर ​ बलिदान ​कर दिया गया ​| ​

By Shubham Verma, Community Development Fellow, at Vision India Foundation

परिचय –

गुरु तेग़ बहादुर भारत के महान सिख संप्रदाय के नौवे गुरु थे | विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का नाम अद्वितीय है | गुरु तेग़ बहादुर सिखों के छठें गुरू हरगोबिन्द जी के पुत्र थे | गुरु हरगोबिन्द जी के बाद गुरू हरराय साहिब तथा श्री हरकिशन साहिब सातवे एवं आठवे गुरु के पद पर आसीन हुये | गुरु हरकिशन साहिब ने अपने अंतिम समय मे नवे गुरु के विषय मे बताते हुये अपने उत्तराधिकारी के नाम के लिए ‘बाबा बकाले’ शब्द का निर्देश दिया था | यह खोज गुरु तेग़ बहादुर जी पर आकर रुकी तथा जनमत द्वारा ये नवम गुरु बनाए गए। |

गुरु तेग़ बहादुर का बचपन का नाम त्यागमल था | इन्होने 1634 में करतारपुर मे पिता के साथ मुग़लों के हमले के ख़िलाफ़ हुए युद्ध में ऐसी वीरता दिखाई कि उनके पिता ने उनका नाम त्यागमल से तेग बहादुर (तलवार के धनी) रख दिया | उस वक्त तेग बहादुर जी महज 13-14 साल के थे | युद्धस्थल में भीषण रक्तपात से गुरु तेग़ बहादुर जी के वैरागी मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनका मन आध्यात्मिक चिंतन की ओर हुआ। धैर्य, वैराग्य और त्याग की मूर्ति गुरु तेग़ बहादुर जी ने एकांत में लगातार 21 वर्ष तक ‘बाबा बकाला’ नामक स्थान पर साधना की । जब आठवें गुरु हरकिशन जी ने अपने उत्तराधिकारी का नाम के लिए ‘बाबा बकाले’ का निर्देश दिया तो सभी शिष्य अपने गुरु को खोजते हुये ‘बाबा बकाला’ तक आ गए तथा उन्हे पहचान गए, तब 21 वर्ष की सतत् साधना के बाद 1665 ई. में लोगों की विनती पर गुरु तेग़ बहादुर जी गुरु गद्दी पर विराजमान हुए |

आध्यात्मिक जीवन –

गुरु तेग़ बहादुर जी ने धर्म के प्रसार लिए कई स्थानों का भ्रमण किया। आनंदपुर साहब से कीरतपुर, रोपण, सैफाबाद होते हुए वे खिआला (खदल) पहुँचे । यहाँ उपदेश देते हुए दमदमा साहब से होते हुए कुरुक्षेत्र पहुँचे । कुरुक्षेत्र से यमुना के किनारे होते हुए कड़ामानकपुर पहुँचे और यहीं पर उन्होंने साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया । गुरु तेगबहादुर जी प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में भी गए, जहाँ उन्होंने आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए रचनात्मक कार्य किए। आध्यात्मिकता, धर्म का ज्ञान बाँटा। रूढ़ियों, अंधविश्वासों की आलोचना कर नये आदर्श स्थापित किए। उन्होंने परोपकार के लिए कुएँ खुदवाना, धर्मशालाएँ बनवाना आदि कार्य भी किए। इन्हीं यात्राओं में 1666 में गुरुजी के यहाँ पटना साहब में पुत्र का जन्म हुआ। जो दसवें गुरु- गुरु गोविंद सिंह बने । इस तरह 1675 तक उन्होने बहुत से सामाजिक एवं आध्यात्मिक कार्य किए एवं समस्त भारतवर्ष मे कई स्थानो पर भ्रमण करके ज्ञान का प्रचार प्रसार किया |

कश्मीरी पंडित और औरंगजेब –

जिस समय गुरु तेग़ बहादुर जी शांति से धर्म एवं आध्यात्म का प्रचार प्रसार कर रहे थे | उसी समय मुगल शासक औरंगज़ेब आम जनता खासकर के गैर मुस्लिमो पर अत्याचार करने लगा | वह बेहद क्रूर एवं कट्टरपंथी शासक था तथा उसके मज़हब के सिवा दूसरे किसी भी धर्म को नहीं मानता था | उसने कश्मीरी पंडितों पर भी अत्याचार करने शुरू कर दिये तथा उन्हे फरमान भिजवाया की वो सभी इस्लाम कबूल कर लें या मारे जाएँगे | परेशान कश्मीरी पंडितो को किसी ने बताया की उत्तर मे गुरु की तलाश करो वही तुम्हारी रक्षा कर सकेंगे | तब कश्मीरी पंडित खोजते खोजते आगे बढ्ने लगे | कई स्थानो पर उन्हे गुरु तेग़ बहादुर जी के विषय मे लोगों से सुनने को मिला अतः वह सभी उनके पास पहुँच गए एवं उन्हे यह बताया की वो एक महान गुरु की तलाश कर रहे हैं | यह सुनकर गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र श्री गोबिन्द सिंह जी बोल पड़े की “गुरु तेग़ बहादुर जी से बड़ा गुरु आखिर कौन हो सकता है ?” |

कश्मीरी पंडितों ने तेग बहादुर को बताया कि जो लोग औरंगजेब की बातों को नहीं मान रहे हैं उनपर अत्याचार किया जा रहा है | कश्मीरी पंडितों के दल ने गुरु तेग बहादुर से मदद की प्रार्थना की- गुरु जी ने कहा, ‘इसके लिए किसी महापुरुष को आत्मबलिदान देना होगा’ | तब बालक गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा- ‘इस बलिदान के लिए आपसे बड़ा महापुरुष कौन हो सकता है ?’| 

उपस्थित लोगों द्वारा उनको बताने पर कि आपके पिता के बलिदान से आप अनाथ हो जाएंगे और आपकी मां विधवा तो गोविंद सिंह जी ने उत्तर दियाः 

“यदि मेरे अकेले के यतीम होने से लाखों बच्चे यतीम होने से बच सकते हैं या अकेले मेरी माता के विधवा होने जाने से लाखों माताएँ विधवा होने से बच सकती है तो मुझे यह स्वीकार है।”

अबोध बालक का ऐसा उत्तर सुनकर सब आश्चर्य चकित रह गए। तत्पश्चात गुरु तेगबहादुर जी ने पंडितों से कहा कि आप जाकर औरंगज़ेब से कह ‍दें कि –

“यदि गुरु तेगबहादुर ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया तो उनके बाद हम भी इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे। और यदि आप गुरु तेगबहादुर जी से इस्लाम धारण नहीं करवा पाए तो हम भी इस्लाम धर्म धारण नहीं करेंगे”|

इससे औरंगजेब क्रुद्ध हो गया और उसने गुरु तेगबहादुर जी को बन्दी बनाए जाने के लिए आदेश दे दिए। 

कश्मीरी पंडितों के दल से मुलाकात करने बाद गुरु तेग बहादुर औरंगजेब को समझाने के लिए दिल्ली पहुंचे | औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर के सामने तीन शर्ते रखीं – ‘इस्लाम कबूल करें, करामात दिखाएं या शहादत दें’| औरगंजेब को जवाब देते हुए गुरु जी ने उत्तर दिया ‘मैं धर्म परिवर्तन के विरुद्ध हूं, और चमत्कार दिखाना ईश्वर की इच्छा की अवहेलना है|’

इसके बाद गुरु तेग बहादुर जी के साथ दिल्ली गए तीन सिखों भाई मती दास, भाई सती दास और भाई दयाला को यातनाएं देकर उनके ही सामने शहीद कर दिया गया| गुरु तेगबहादुर जी ने औरंगजेब से कहा कि- “यदि तुम जबरदस्ती लोगों से इस्लाम धर्म ग्रहण करवाओगे तो तुम सच्चे मुसलमान नहीं हो क्योंकि इस्लाम धर्म यह शिक्षा नहीं देता कि किसी पर जुल्म करके मुस्लिम बनाया जाए”। औरंगजेब यह सुनकर आगबबूला हो गया। उसने गुरु तेग बहादुर जी पर भी अनेक अत्याचार किए | उसने दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु तेगबहादुर का शीश काटने का हुक्म दे दिया अंतत: आठ दिनों की यातना के बाद 24 नवंबर 1675 ई. को गुरु जी को दिल्ली के चांदनी चौक में शीश काटकर शहीद कर दिया गया और गुरु तेगबहादुर ने हंसते-हंसते अपने प्राणों का बलिदान दे दिया लेकिन इस्लाम कबूल नहीं किया तथा अपना बलिदान देकर लाखों कश्मीरी पंडितो को भी मत परिवर्तन से बचा लिया | गुरु तेग बहादुर की याद में दिल्ली मे इसी स्थान पर गुरुद्वारा शीश गंज साहिब को बनाया गया है |

गुरु शीश के लिए सोनीपत के बाबा दाहिया का बलिदान –

औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर जी का शीश तो कटवा दिया पर उसके बाद भी वह क्रूर शासक नहीं माना तथा उसने उनके पवित्र पार्थिव शरीर की बेअदबी करने के लिए शरीर के चार टुकड़े कर के उसे दिल्ली के चारों बाहरी गेटों पर लटकाने का आदेश दे दिया। लेकिन उसी समय अचानक आये अंधड़ का लाभ उठाकर एक स्थानीय व्यापारी लख्खीशाह गुरु जी का धड़ और भाई जैता जी गुरु जी का शीश उठाकर ले जाने में कामयाब हो गए। भाई जैता जी ने गुरूजी का शीश उठा लिया और उसे कपडे में लपेटकर अपने कुछ साथियों के साथ आनंदपुर को चल पड़े। औरंगजेब ने उनके पीछे अपनी सेना लगा दी और आदेश दिया कि किसी भी तरह से गुरु जी का शीश वापस दिल्ली लेकर आओ। भाई जैता जी किसी तरह बचते बचाते सोनीपत के पास बढख़ालसा गाँव में पहुंचे गए। मुगल सेना भी उनके पीछे लगी हुई थी। 

बाबा खुशहाल सिंह दहिया को जब पता चला तो वे भी वहां पहुंचे और गुरु जी के शीश के दर्शन किए। मुगलो की सेना भी गांव के पास पहुंची तो गांव के लोग इकट्‌ठा हुए और सोचने लगे कि क्या किया जाए? मुग़ल सैनिको की संख्या और उनके हथियारों को देखते हुए गांव वालों द्वारा मुकाबला करना भी आसान नहीं था। सबको लग रहा था कि मुगल सैनिक गुरु जी के शीश को आनन्दपुर साहिब तक नहीं पहुंचने देंगे, अब क्या किया जाए ? तब दादा खुशहाल सिंह दहिया ने आगे बढक़र कहा कि सैनिको से बचने का केवल एक ही रास्ता है- 

“गुरु जी का शीश, मेंरे चेहरे से मिलता जुलता है। अगर आप लोग मेरा शीश काट कर, उसे गुरु तेगबहादुर जी का शीश कहकर, मुग़ल सैनिको को सौंप देंगे तो ये मुगल सैनिक शीश को लेकर वापस लौट जायेंगे तब गुरु जी का शीश बड़े आराम से आनंदपुर साहब पहुँच जाएगा और उनका सम्मान के साथ अंतिम संस्कार हो जाएगा।“

उनकी इस बात से चारों तरफ सन्नाटा फैल गया। सब लोग हैरान रह गए कि  कैसे कोई अपना शीश काटकर दे सकता है ? 

पर वीर बाबा खुशहाल सिंह फैसला कर चुके थे, उन्होंने सबको समझाया कि  गुरु तेग बहादुर को हिन्द की चादर कहा जाता हैं, उनके सम्मान को बचाना हिन्द का सम्मान बचाना है. इसके अलावा कोई चारा नहीं है। फिर बाबा खुशहाल सिंह ने अपना सिर कटवाकर गुरु शिष्यो को दे दिया।

जब मुगल सैनिक गाँव में पहुंचे तो सिक्ख दोनों शीश को लेकर वहां से निकल गए भाई जैता जी गुरु जी का शीश लेकर तेजी से आगे निकल गए औए जिनके पास दादा खुशहाल सिंह दहिया का शीश था, वे जानबूझकर कुछ धीमे हो गए, मुग़ल सैनिको ने उनसे वह शीश छीन लिया और उसे गुरु तेग बहादुर जी का शीश समझकर दिल्ली लौट गए। इस तरह धर्म की खातिर बलिदान देने की भारतीय परम्परा में एक और अनोखी गाथा जुड़ गई।

श्री कीरतपुर साहिब जी पहुँचकर भाई जैता जी से स्वयँ गोबिन्द राय जी ने अपने पिता श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का शीश प्राप्त किया और भाई जैता जो रँगरेटा कबीले के साथ सम्बन्धित थे। उनको अपने आलिंगन में लिया और वरदान दिया ‘‘रँगरेटा गुरु का बेटा’’। विचार हुआ कि गुरुदेव जी के शीश का अन्तिम सँस्कार कहां किया जाए। दादी माँ व माता गुजरी ने परामर्श दिया कि श्री आनंदपुर साहिब जी की नगरी गुरुदेव जी ने स्वयँ बसाई हैं अतः उनके शीश की अँत्येष्टि वही की जाए। इस पर शीश को पालकी में आंनदपुर साहिब लाया गया और वहाँ शीश का भव्य स्वागत किया गया सभी ने गुरुदेव के पार्थिक शीश को श्रद्धा सुमन अर्पित किए तद्पश्चात विधिवत् दाह सँस्कार किया गया।

उपसंहार –

गुरु तेग़ बहादुर के अन्तिम हुक्मनामे में गुरुदेव का वही आदेश था जो कि उन्होंने आंनदपुर साहिब से चलते समय घोषणा की थी कि उनके पश्चात गुरु नानक देव जी के दसवें उत्तराधिकारी गोबिन्द राय होंगे। इस तरह गुरु गोबिन्द सिंह जी ने दशम गुरु की पदवी को संभाला और कालांतर मे उनका तथा उनके चार पुत्रों का भी बलिदान देश और धर्म की रक्षा के लिए मुगलों से लड़ते हुये हुआ |

इस तरह भारत की महान प्राचीन गुरु शिष्य परंपरा के वाहक गुरु तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी पंडितो की अस्मिता तथा देश और धर्म की रक्षा के लिए स्वयं के परिवार का बलिदान दे दिया | ऐसे अनेकों महान व्यक्तित्वों के बलिदान के कारण आज भी भारत अपनी प्राचीन विरासत को सँजोया हुआ है तथा एकमात्र जीवित प्राचीन सभ्यता के रूप मे विश्व मे अपना परचम लहरा रहा है |

युवाओं को नए भारत की बात करते समय इन बलिदानो तथा महान गुरुओं को सदैव याद रखना चाहिए क्योंकि भारत की आज़ादी तथा अस्मिता और संस्कृति इनकी बलिदानो के कारण आज जीवित है |