किसान आंदोलन: दादागिरी के सामने डेमोक्रेसी की हार ?

By Gajendra Prajapat Kanaram, Learner at Rashtram

भारत सरकार ने बहुचर्चित एवं विवादित कृषि कानूनों को वापिस लिया तब से भारतीय राजनीति में गर्माहट आ गयी है। आगामी समय में राज्यों के चुनाव आने वाले है तो प्रत्येक सियासी खेमा अपने-अपने गणित और कयास लगा रहे है। विपक्ष के लोग इसे मोदी की एक बड़ी हार के साथ साथ एक राजनितिक दांव मानते है। सरकार का समर्थन करने वाले लोग इसे राष्ट्रीय आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा के साथ जोड़ते हुए देशहित में सही फैसला मानते है । किसानो ने अपनी लगभग सभी मांगे मनवा ली है और धरना समाप्त करने की घोषणा कर दी है। सरकार का फैसला तथा किसानो का मत और मंसूबा कई सारे सवालों के घेरे में है। किसानो की जीत को डेमोक्रेसी की जीत कहा जाये या दादागिरी के सामने डेमोक्रेसी की हार मानी जाये ? इस लेख में किसान आंदोलन को अलग -अलग दृष्टिकोण तथा घटीं घटनाओ की निष्पक्ष विवेचना करने का प्रयास किया गया है । 

भूमिपुत्र और भूमिपति  

किसानो की विभिन्न श्रेणिओ को समझने की आवश्यकता। यदि उदहारण के लिए हम विद्यालय और विश्वविद्यालय के शिक्षको की बात करे तो विद्यालय में पढ़ने वाले को आचार्य अथवा टीचर, विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले को प्राध्यापक अथवा प्रोफ़ेसर कहते हैं | दोनों के लिए अलग अलग नियम लागू होते हैं । इसी प्रकार जब हम किसान बोलते है तब बड़ा किसान (भूमिहार, सामंत) एवं सामान्य, छोटा किसान को हम एक जैसे समझ लेते हैं, ये एक बहुत बड़ी भूल है , ऐसा करना न सिर्फ बुद्धिमता की कमजोरी है बल्कि ये छोटे किसानो के साथ अन्याय भी है।  भारतीय समाज का किसानो के प्रति एक अगाध भावनात्मक जुड़ाव सदैव से ही रहा है, जब भी किसान की बात आती है तब भावनात्मक फैसला या उनके  पक्ष में लिया जाता है।  विवेक को उपयुक्त स्थान नहीं दिया जाता है, दरकिनार कर दिया जाता है और ऐसे में हम बहुत बड़ी गलती कर देते है।  हम किसानो की एक वॉयलेंट माइनॉरिटी के झाँसे में आ जाते है और किसानो की एक साइलेंट मेजोरिटी के हितो को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस किसान आंदोलन को समझने एवं परिभाषित करने मे कही न कही ये गलती हुई है।  इस आंदोलन मे प्रभावशाली माइनॉरिटी अपना प्रभाव एवं दबाव बनाने मे कामयाब रहे। देश के वो किसान (साइलेंट मेजोरिटी ) जो वाकई खेतो मे स्वयं मेहनत मजदूरी कर रहे है उनकी पहचान और हितो की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया, नजरअंदाज कर दिया गया।  

किसान शब्द के साथ लोग इतने भावनात्मक रूप से जुड़े हुए है की बहुत सारे लोगो ने तीनो कानूनों को गलत करार दिया बिना जाने, बिना समझे, बस इसलिए की कुछ किसान इसका विरोध कर रहे  हैं। भारतीय राजनीति मे  किसानो का मुद्दा इतना संवेदनशील है के बड़े बड़े दिग्गज लोग भी अपनी बात रखने से पहले कही बार सोचते हैं। किसान मुद्दे पर लोग कुछ कहने से परहेज करते हैं, सच कहने से या अपना निष्पक्ष विचार रखने से कतराते हैं। यदि कोई तार्किक रूप से तीनो कानूनों का समर्थन करता है तो बिना उसके तर्कों को सुने और समझे लोग उसे किसान विरोधी या मोदी भक्त करार देते हैं। हमारा देश कृषि प्रधान देश है इसलिए हमारे समाज मे कृषि और कृषक का अत्यंत  महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन किसान के नाम पर सामंतवादी सोच, सामंतवादी व्यवस्था पर पर्दा नहीं डाल सकते, नहीं तो छोटे किसानो के साथ अन्याय होगा | इसलिए Unequal treated unequally  की आवश्यकता है, भावनाओ के साथ साथ तर्क और विवेक को भी उपयुक्त स्थान मिलना चाहिए।  

देशव्यापी आंदोलन या सिमित आंदोलन?

कुछ लोग इसे देशव्यापी आंदोलन कहते हैं लेकिन ये कहाँ तक सही है?  क्या ये आंदोलन एक कास्ट और कम्युनिटी  के दबाव, प्रभाव और अहंकार से जुड़ा आंदोलन नहीं है?  आंदोलनकारी खुले मे बोलते मिले कि इंदिरा को ठिकाने लगा दिया तो मोदी क्या चीज़ है ? इसे देशव्यापी आंदोलन नहीं कहना ही उचित होगा क्योकि इसे सिर्फ कुछ गिने चुने राज्यों के लोगो का समर्थन मिला, कुछ राज्यों के लोग इसमें शामिल हुए| उसमे भी प्रश्न उठता है कि क्या लोग अपनी इच्छासे शामिल हुए या डरा धमकाकर , इच्छा के खिलाफ उन्हें मजबूर किया गया, उकसाया गया आंदोलन मे शामिल होने के लिए? या पैसे देकर भाड़े की भीड़ इकठ्ठी की? बहुतायत लोगो को पता भी नहीं था वो क्यों आंदोलन मे सम्मिलित क्यों हुए हैं ? क्या ये किसान आंदोलन है या बिचौलियों का आंदोलन है? 

अन्ना हजारे का आंदोलन एक देश व्यापी आंदोलन था , शहरो के युवा उस आंदोलन से जुड़े थे।  युवा लोग भावनात्मक रूप से आंदोलन से जुड़े थे साथ ही उन्हें ये पूरा ज्ञान था की वो लोग क्यों आंदोलन मे सम्मिलित हुए है ? उन्हें मुद्दे के बारे मे पूरी जानकारी थी।  परन्तु यह किसान आंदोलन ग्रामीण क्षेत्र से जुड़ा हुआ है जो की लाजमी है। गांव में लोग आपसे में एक दूसरे से भावनात्मक रूप से जुड़े होते है, प्रभावशाली लोगो का बहुत मानते है, उनकी बात को, बिना किसी प्रश्न के शब्द सह मान लेनी की प्रवृति होती है, चाहे बातो की सच्चाई में कमी क्यों ना हो। अधिकाशं लोग बातो की गहराई को जानने का प्रयास बहुत कम करते है। कभी – कभी प्रभावशाली लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए लोगो को गुमराह कर लेते है , इस किसान आंदोलन में बहुत हद तक ऐसा ही हुआ है। किसानो के भावनात्मक जुड़ाव और जानकारी का आभाव को तथाकथित किसान नेताओ ने और बिचौलिओं ने किसानो को गुमराह करके भीड़ इक्कठी करके किसानो का नाज़ायज फायदा उठाया है|  

किसकी जीत?

किसानो के आंदोलन की प्राथमिक मांग थी कि सरकार तीनो कानून वापिस ले, धरने को सम्बोधित करने वाले तथा वहाँ पर बैठे लोग कह रहे थे यदि सरकार कानून वापिस लेती है तो हम लोग आंदोलन सामाप्त कर  लेंगे और घर चले जायेंगे परन्तु जैसे ही सरकार ने कानूनों को वापिस लेने की घोषणा की है तब से किसान नेताओ सुर , ताल तथा  तेवर बदल गए हैं जोकि  किसानो की आवाज नहीं लगती बल्कि एक राजनीतिक विपक्ष की आवाज लगाती है।

जैसे  ही सरकार ने तीनो कानून वापस लिए तब से कहा जा रहा है कि डेमोक्रेसी की जीत हुयी, लेकिन प्रश्न है क्या वाकई डेमोक्रेसी की जीत हुयी है? क्या प्रोटेस्ट का प्रकार डेमोक्रेटिक था? इसे डेमोक्रेसी की जीत कहने से पहले हमारे सामने सुलगते सवाल हैं: क्या हम 26/01/2021, गणतंत्र दिवस की दहशतगर्दी को भूल जायेंगे? क्या हम तिरंगे का अपमान भूल जायेंगे? क्या हम लखिमपुर की घटना को भूल जायेंगे? दिन दहाड़े हाथ काटकर तड़पा – तड़पा कर हत्या करके बैरिकेड पर लटकने वाली घटना को भूल जायेंगे? आंदोलन मे जो तस्वीरों को लगाया गया तथा जो झंडे लहराए गए उन्हें कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं? जब इन  प्रश्नो पर चिंतन करने का प्रयास करते हैं तो सवाल उठता है कि ये डेमोक्रेसी की जीत है या दादागिरी की? Corona के बाद जहाँ अर्थव्यवस्था इस त्रासदी के बोझ से जूझ रही है फलस्वरूप महंगाई बढ़ रही है, ऐसे मे आंदोलन स्थल पर रहन-सहन एवं भोजन की गुणवत्ता अवश्य ही  विचार करने पर मजबूर कर देती है| अतः  इस पर निष्पक्ष चिंतन की आवश्यकता है।  

कानून वापसी क्यों ?

यदि सरकार ने आगामी चुनाव को लेकर कानून वापिस लिए, और किसानों की मांगे मान ली, तो कब तक ये चुनाव आधारित राजीनीति होती रहेगी ? स्वयं को राष्ट्रवादी सरकार कहने वाले भी चुनावी चाचा बन गए! परन्तु  यदि सरकार ने पार्टी हित के लिए ये फैसला किया है तो उन्होंने राष्ट्रवाद के नाम पर देश को गुमराह किया है , लोगो की भावनाओ के साथ खिलवाड़ किया है।  

यदि सरकार ने ये फैसला राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर रखते हुए राष्ट्रहित के लिए किया है तब सवाल उठता है हमारी इंटेलिजेंस पर, सुरक्षा नीति पर और सुरक्षा व्यवस्था पर। क्या फॉरेन फंडिंग और तथाकथित खलिस्तनिओ के संभावित समर्थन और योगदान के सामने भारत का सुरक्षा तंत्र  कमजोर पड़ गया ? भारत को विश्वगुरु बनाने का सपना देख रहे है , प्रयास भी कर रहे है परन्तु हम हमारी घरेलु राजनीति के सामने घुटने टेक रहे है ? सरकार के साथ-साथ समस्त राष्ट्र  को इस  पर चिंतन की आवश्यकता है। 

यदि कानूनों को इसलिए वापिस लिया गया क्योंकि  आंदोलनकारी आक्रोश से भरे थे , हिंसा दिन भर बढ़ती जा रही थी , 26 जनवरी 2021, सिंघु बॉडर की घटना , लखीमपुर इत्यादि की घटना।  जाति विशेष का जगजाहिर व्यवहार , बिचौलिओं की छोटे किसानो पर प्रभाव , किसानो की एकता , हठ, हरकते , दबाव , आक्रोश , धमकी , उत्पात , हिंसा , आराजकता इत्यादि को ध्यान में रखते हुए यदी सभी मांगे मान ली गयी हैं तो ये तो ये  निश्चित रूप से दादागिरी के सामने डेमोक्रेसी की हार हुयी है। 

आंदोलन के परिणाम और भविष्य की राह

सरकार ने तीनो कानून वापिस ले लिए हैं उसके पीछे कारण राजनीतिक हों , पार्टी हित हो या राष्ट्रहित परन्तु सामंत किसान और उनके साथ बैठे अन्य लोग, सरकार के इस फैसले को किस प्रकार लेते है? आंदोलन से हुए आर्थिक, राजनितिक , सामाजिक नुकसान के साथ ही देश की प्रतिष्ठा को जो ठेंस पहुंची है , इस पर विचार करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।  

सरकार ने तीनो कानून वापिस लिए और सभी मांगे मान ली हैं  तो सबसे पहला सन्देश जो गया वो है कि यदि आपके पास आप की जाति  का ,कम्युनिटी का सहयोग है अर्थात संख्या बल है , चाहे वो किसी भी प्रकार से जुटाया गया हो , धन है , आक्रोश है , दादागीरी है तो आप सरकार को अपनी जायज या नाजायज मांगे मनवाने मे कामयाब हो सकते हो।  परन्तु इसके दूरगामी परिणाम बहुत दुष्कर हो सकते है। ये आंदोलन से मांगे मनवाने का भविष्य में नमूना बन सकता है| आंदोलन की घटना लोकतंत्र की सुंदरता नहीं, जिद्द और जीत की कहानी बन जायेगा। जिस प्रकार से ये पूरा घटनाक्रम हुआ है उससे  भविष्य में लोकतान्त्रिकआंदोलनों की महत्ता कम हो सकती है और दादागिरी एक सिलसिला बन सकती है।  

सरकार को तुष्टिकरण की राजनीति  से  ऊपर उठ कर सोचने की आवश्यकता है , अन्य वर्ग के लोगो के अधिकारों को सुनिश्चित करें ।  इस प्रकार के आंदोलन में मीडिया और लोगो का ध्यान आंदोलन की मांग एवं सरकार के रवैये पर रहता लेकिन हमारा समाज के मध्यम  वर्ग पर इस प्रकार के आंदोलन के प्रभाव पर कभी ध्यान जाता ही नहीं है तथा  आंदोलन से प्रभावित लोगो के हितो को दरकिनार कर दिया जाता है। 

अतः सरकार को और समाज दोनों को भावनाओ एवं सहानुभूतिओ के साथ-साथ विवेक बुद्धि से चिंतन मनन की आवश्यकता है।  छोटे किसान और बड़े किसान की पहचान और हितो को अलग से समझने और परिभाषित करने की आवश्यकता है।  लोकतान्त्रिक और दादागीरी (जाति और पथ के अहंकार आधरित ) विरोध प्रदर्शन में भेद करने की आवश्यकता है।  दूषित विचारधाराओं , समाज को दूषित करने वाले नेताओ को उनके यथा योग्य स्थान तक पहुंचने की आवश्यकता है। समाज की भावनाओ के साथ खिलवाड़ करने वाले, समाज को गलत दिशा में भड़काकर स्वयं को राजनीति में चमकाने वाले बहरूपियों, तथाकथित किसान नेताओं की पहचान करने की आवश्यकता है। आंदोलनों की सीमा  रेखा और नियम निर्धरित करने की आवश्यकता है , देश को सशक्त एवं संवेदनशील विपक्ष की आवश्यकता है।  देश को प्रभावशाली अवं सशक्त इंटेलिजेंस की आवश्यकता है। सरकार को भी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का पालन करते हुए , सभी को विश्वास  में लेते हुए कानून बनाने चाहिए न की राजनितिक लाभ के लिए। तब कहीं जाकर  हम लोकतंत्र को दादागीरी से सुरक्षित रख पाएंगे।  लोकतंत्र को संकुचित मानसिकता एवं निजी हितो के सामने घुटने नहीं टेकने पड़ेंगे। दादागिरी के सामने लोकतंत्र का अपमान नहीं होगा और ना ही लोकतंत्र की हार|